कइसे बसंत मनाइब हो ..
आली कंत न अइलैं तै कइसे बसंत मनाइब हो ॥
बैरिनि कुहुँकै कोइलिया कतेक समुझाइब हो
सखि बगिया निरखि रसवंती पगल होइ जाइब हो ॥
जाती की बेरियाँ कह्त गइलैं तोहै ना भुलाइब हो
रानी रखबै करेजवा की ओट पलकिया छिपाइब हो ॥
जनि रोआ अँखिया कै पुतरी तोहैं न बिसराइब हो
सखि चढ़तै फगुनवाँ कै मास बहुरि हम आइब हो ॥
हम नाहिं धनि निरमोहिया कि बिरहे जराइब हो
सखि सवने के मेघे तोहैं मघवा के जाड़ जुड़ाइब हो ॥
बहियाँ के पलना में झुर-झुर बेनियाँ डोलाइब हो
रानी तोरि निनिया सूतब जागब कल नहिं पाइब हो ॥
ओह्ह .... क्या कहें....इस सरस उपालंभ में जो बात है न... शब्द में बाँध इसे अभिव्यक्त करने की क्षमता मुझमे नहीं...
ReplyDeleteमन मोह गयी आपकी यह रचना.....अद्बुद अद्भुद !!!
बस और क्या कहूँ,समझ नहीं पा रही....
कृपया इस उपेक्षित भाषा और शैली को इसी तरह बचाए रखने में अपना महत योगदान देते रहें...
विलम्ब से आया पर उतना ही अघाया ...
ReplyDeleteकितनी निश्चलता है , इस लोक वाणी में ;
'' .. जनि रोआ अँखिया कै पुतरी तोहैं न बिसराइब हो
सखि चढ़तै फगुनवाँ कै मास बहुरि हम आइब हो ॥ ''
............... हियाँ आय के करेज जुड़े जात है !
बाकी रचना जी के बात का राखे रहेव !
बेहद मर्मस्पर्शी । बधाई बंधुवर
ReplyDeleteनीक.चित्र बनावे वाले रवीन्द्र व्यासो चिट्ठाकार हौव्वन .
ReplyDeleteअच्छा लगा...
ReplyDeleteअच्छा लगा...
ReplyDeleteमनमोहक! रचना.
ReplyDeleteजाती की बेरियाँ कह्त गइलैं तोहै ना भुलाइब हो
ReplyDeleteरानी रखबै करेजवा की ओट पलकिया छिपाइब हो ॥
माटी की खुशबू की बात ही कुछ और है
बेहद खूबसूरत रचना
बहुत खूब